Thursday, November 15, 2018

हम भी निकलें....


कुछ लकीरें मारी थी कोरे कागज़ पर कुछ ज़िन्दगी के अफसाने निकले कुछ ज़िन्दगी जीने के बहाने निकले कुछ सजीले से सपने निकले हम चले तो थे घर से अकेले ही पथ पर कुछ जाने पहचाने निकले मौत से भी रूबरू होना है अभी वक्त ख़त्म हो तो हम भी निकलें                                   


तुम्हारे ख़याल से अब ये दिल न बेहलेगा तुम ख़्वाब बन आओ तो क्या न आओ तो क्या

इक तरफा मोहब्बत





हो सकता था तुम्हारी मेरी कहानी बन जाती पर फिर ये इक तरफा मोहब्बत अधूरी रह जाती

आँसू



मेरे दरवाज़े पर आहट भी नहीं अब पहले सी मेरी दुनिया नहीं हर मेफ़िल में नाम था मेरा आज महफ़िलें गुमनाम सही वक़्त का रंग बदलता है हमेशा रंगीन नहीं रहता ये तुम अपने आँसू सम्भालो यारो अभी ज़िंदा हूँ मैं, मरा तो नहीं...                                                                                        

बचपन....



बचपन में ही बसता था जीवन
अब तो बस जीना पड़ता है
हर ज़हर चुपचाप पीना पड़ता है
दिल के जख्मों को खुद सीना पड़ता है
अँधरे में ही रोना पड़ता है
कोई देख न ले बेसब्र बहते नीर

                                                                





अब की फिर यादों की गलियों से धुँआ उठा है
लगता है कोई ग़म दिल ए गर्द से फिर उठा है

वक़्त की तो फ़ितरत है...




वक़्त की तो फ़ितरत है
बदलने की बदल गया
तुम क्यों बदल गई बेवज़ह...




फ़ुर्सत मिली भी तो तेरी याद चली आई

अब रात गुज़रेगी तुझे याद करते-करते..